नज़्म
।। एकाकी हों चला हैं दिल, ज़हन में भी अंधेरा अब अधूरा है, तपन हैं बुझे घावों में बस ये दर्द ही हैं जो अब ज़िन्दा है सीने में, कश्मकश है, उलझन हैं सांसो मे, बस जीते रहने की आदत से ये दिल भी रहने लगा है इस सीने में कहीं ।।
।। दर्द को आवाज़ नही, जिस्म पे कोई घाव नही, महफूज़ है सीने में दर्द तेरा मानो कोई इल्म छुपाए हो जीने का, बरसों हो गए तुम्हें इस दिल से गुजरे, आज ये विराना ही सही मगर इन विरानो में कुछ यादें जिन्दा आज भी है ।।
।। दिल ही तो था जो जलता रहा सीने में, मन का क्या दुनिया के दस्तूरो ने इसे कब का विराना कर दिया, आबाद है रूह ज़िन्दगी की इन विरानो में, यकीन मानो बीते हुए कल की झलक, तुम्हारे होने की खुशबू और तुम्हारे हसने की खिलखिलाहट यहा बिखरी हुई आज भी हैं ।।
...विजय शेखर सिंह
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